दिनेश सिंह भदौरिया सीहोर। कभी रातापानी के जंगलों में बब्बर शेर भी घूमते थे। इन जंगलों में शहद, शिलाजीत और जड़ी-बूटियों के खजाने थे। जड़ी-बूटियां इतनी ज्यादा मात्रा में उपलब्ध थीं कि सफेद मूसली जैसी जड़ी की कीमत मात्र दो रुपए प्रतिकिलो थी। खुशलगढ़ के जंगलों में पहाड़ी पर शिलाजीत और शहद के लिए जाते थे, जहां भालुओं का डर रहता था। उस समय आग जलाने के लिए माचिस भी सुलभ नहीं होती थी।

घर वापस नहीं लौटी थी भैंस
ज्ञान सिंह दांगी बताते हैं कि जब वे करीब 17 साल के रहे होंगे, तब एक घटना घटी। एक दिन वे कठौतिया के जंगल से गुजर रहे थे। वहां सागौन का घना जंगल था। इस जंगल में कहीं-कहीं तो दिन में भी अंधेरा जैसा रहता था। उनके साथ एक 10-12 वर्ष की उम्र का एक लड़का और था। वे रामफूल की भैंस को जंगल में तलाशने गए थे, जो चरने के बाद शाम को घर वापस नहीं लौटी थी।
पूंछ लठ्ठ की तरह एकदम सीधी कर ली
जंगल में अचानक उन्होंने देखा कि एक भारी-भरकम बंदर चट्टान पर बैठा बार-बार पूंछ पटक रहा था। उसकी पूंछ कभी चट्टान पर गिरती कभी बंदर की पीठ पर सिर के बीचोंबीच गिरती। दोनों लड़कों के आगे बढऩे पर उस विशालकाय बंदर ने अपनी पूंछ लठ्ठ की तरह एकदम सीधी कर ली। उसे देखकर दोनों लड़के रुक गए। करीब पच्चीस मीटर की दूरी से उन्होंने गौर से देखा तो समझा कि यह बंदर नहीं बब्बर शेर है।
पिता की नसीहत याद आ गई
बब्बर शेर को देखते ही ज्ञान सिंह को अपने पिता की नसीहत याद आ गई और वे लॉयन पर नजर जमाए हुए अपने साथी के साथ पीछे की तरफ हटने लगे। इसके बाद सिंह उठकर खार (बरसाती नाला) पार करके तूमड़ा खेड़ा की तरफ चला गया। कुछ देर बाद शेर ने गाय पर हमला किया। हमला इतना तेज था कि गाय वहां पड़े हुए महुआ के पेड़ पर जा लटकी।