टाइगरमैन ऑफ इंडिया: फतेह सिंह राठौड़ की अद्भुत गाथा
भारत में अगर किसी एक व्यक्ति का नाम बाघ संरक्षण की कहानी में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है, तो वह हैं फतेह सिंह राठौड़ — जिन्हें पूरे देश में टाइगरमैन ऑफ इंडिया के नाम से जाना जाता है। उनकी जिंदगी रोमांच, साहस, त्याग और जुनून का ऐसा संगम थी, जो न केवल वन्यजीव प्रेमियों के लिए प्रेरणा है, बल्कि यह संदेश भी देती है कि अगर इच्छाशक्ति मजबूत हो, तो एक अकेला इंसान भी पूरी तस्वीर बदल सकता है।
रणथम्भौर — बाघ प्रेमियों का स्वर्ग
आज रणथम्भौर नेशनल पार्क दुनियाभर के बाघ प्रेमियों के लिए स्वर्ग माना जाता है। विदेशी टूरिस्ट यहां सिर्फ एक झलक पाने के लिए आते हैं — जंगल के असली राजा बाघ की। लेकिन कभी यह इलाका बाघों के लिए सुरक्षित नहीं था। शिकार, मानवीय हस्तक्षेप और बिखरते आवास ने बाघों की संख्या को बुरी तरह गिरा दिया था। ऐसे कठिन समय में रणथम्भौर को नई पहचान देने वाले शख्स थे जोधपुर के शेरगढ़ निवासी बहादुर राजपूत, फतेह सिंह राठौड़। उन्होंने अपने जीवन के पाँच दशक जंगल और बाघों के नाम कर दिए।
कॉमन मैन से टाइगरमैन तक का सफर
फतेह सिंह राठौड़ की औपचारिक शिक्षा पूरी होने के बाद वे राजस्थान वन सेवा (Rajasthan Forest Service) में शामिल हुए। यहां से उनकी असली यात्रा शुरू हुई। 1973 में भारत सरकार ने बाघों की लगातार घटती आबादी को देखते हुए Project Tiger की शुरुआत की। रणथम्भौर को इस प्रोजेक्ट में शामिल किया गया और पहले डायरेक्टर कैलाश सांखला ने इसे विकसित करने के लिए सही व्यक्ति की तलाश शुरू की। यह खोज खत्म हुई फतेह सिंह राठौड़ पर। सांखला जी ने उनमें वह जुनून और ईमानदारी देखी, जो इस मुश्किल मिशन के लिए जरूरी थी।
बाघों का घर फिर से बसाना
उस समय रणथम्भौर की सबसे बड़ी चुनौती थी — बाघों के प्राकृतिक आवास में मानव हस्तक्षेप। गांव, खेती, और चराई की वजह से बाघों के जंगल सिमट रहे थे। फतेह सिंह राठौड़ ने इस चुनौती को सीधे स्वीकार किया। उन्होंने स्थानीय निवासियों से संवाद किया, उन्हें दूसरी जगह जमीन और मुआवजा दिलवाया। यह काम आसान नहीं था — न केवल कानूनी, बल्कि भावनात्मक पहलू भी जुड़े थे। लोगों को अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार करना आसान नहीं था, लेकिन राठौड़ की व्यवहारिकता और धैर्य ने यह असंभव सा काम संभव कर दिखाया। धीरे-धीरे इंसानी गतिविधियां जंगल से हटने लगीं और रणथम्भौर अपनी असली पहचान की तरफ लौटने लगा। बाघ फिर से जंगल में दिखने लगे।
पहली बाघिन और ‘पद्मिनी’
फतेह सिंह राठौड़ की जिंदगी का एक अनोखा किस्सा है — रणथम्भौर में जब पहली बार एक बाघिन आई, तो राठौड़ पेड़ पर चढ़कर छुप गए, ताकि उसे करीब से देख सकें। जब उन्होंने उसे देखा, तो उनके रोमांच की कोई सीमा नहीं रही। उन्होंने उस बाघिन का नाम अपनी बेटी पद्मिनी के नाम पर रखा। यह सिर्फ नामकरण नहीं था, बल्कि बाघों के प्रति उनका गहरा मानवीय दृष्टिकोण दर्शाता था। वे बाघों के स्वभाव और आदतों को ऐसे समझते थे, जैसे माता पिता अपने बच्चे को समझते हैं।
टाइगरमैन का साहस
फतेह सिंह राठौड़ ने बाघों की सुरक्षा के लिए कभी भी खतरे से मुंह नहीं मोड़ा। एक बार उन पर जानलेवा हमला भी हुआ, लेकिन उनका हौसला कभी डिगा नहीं। उन्हें देखने वाले कहते थे कि ऐसा लगता था जैसे बाघ और राठौड़ एक-दूसरे के लिए ही बने हों। वे जानते थे कि बाघ केवल जंगल की शोभा नहीं, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र का अहम हिस्सा हैं। बाघ का संरक्षण मतलब पूरे जंगल का संरक्षण।
प्रेरणा और विरासत
फतेह सिंह राठौड़ सिर्फ बाघों के संरक्षक नहीं थे, बल्कि उन्होंने स्थानीय समुदायों में भी जागरूकता फैलाने का काम किया। वे मानते थे कि जंगल और इंसान के बीच संतुलन बनाना जरूरी है। उनकी विरासत आज भी जीवित है — हर वह बाघ जो रणथम्भौर में शान से घूमता है, वह उनकी मेहनत और समर्पण की कहानी कहता है। उनकी सोच थी — “अगर बाघ बचेगा, तो जंगल बचेगा, और अगर जंगल बचेगा, तो इंसान भी बचेगा।”
राठौड़ से लेनी चाहिए प्रेरणा
आज भारत में टाइगर कंजर्वेशन के क्षेत्र में कई प्रोजेक्ट और अभियान चल रहे हैं, लेकिन जो मिसाल टाइगरमैन ऑफ इंडिया फतेह सिंह राठौड़ ने कायम की, वह अद्वितीय है। उनके साहस, धैर्य और समर्पण ने न केवल रणथम्भौर को पुनर्जीवित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए बाघ संरक्षण की मजबूत नींव भी रखी। रणथम्भौर के जंगलों में गूंजती बाघ की दहाड़ आज भी फतेह सिंह राठौड़ की कहानी सुनाती है — एक ऐसी कहानी, जिसमें एक राजपूत ने अपने जीवन को जंगल और बाघों के नाम कर दिया, और हमेशा के लिए अमर हो गया।